इंदिरा गांधी जहां भी जाती थीं वहां पर अपने देश की कमज़ोरियां
कभी नहीं बताती थीं और न ही किसी देश के आगे आर्थिक मदद के लिए हाथ फैलाती हुई
दिखाई देती थीं. इंदिरा गांधी समझ रही थीं कि देश के लिए क्या करना है. सन 1951 में देश में पढ़ने
वाले बच्चों की संख्या लगभग 3 करोड़ थी, पर
बीस वर्षों बाद सन 1971 में यह संख्या लगभग
9 करोड़ हो चुकी थी. ग्रामीण क्षेत्रों
में गरीब बच्चे विद्यालय में पड़ने जाना कठिन काम समझते
थे जबकि कृषि में काम करना उन्हें अच्छा लगता था. इसके लिए इंदिरा गांधी प्रयास कर
रही थीं कि बच्चों को घरों से निकल कर विद्यालय जाने के लिए प्रोत्साहन मिले.
परन्तु बच्चे व उनके माता – पिता विरोध करते थे.
इस विषय में इंदिरा गांधी का यही कहना था कि जो बच्चे अपने
भविष्य को नहीं समझ पा रहे हैं और उनके माता – पिता बच्चों को
शिक्षा की तरफ ले जाने के लिए उत्साहित नहीं हैं तो ऐसे में क्या प्रयत्न किये
जाएँ? परन्तु फिर भी
इंदिरा गांधी ने अपने प्रयासों में कमी नहीं आने दी. उन्होनें गांव - गांव में प्राथमिक विद्यालय बनाने
की योजना बनायी और बच्चों को पुस्तकों को उनका साथी बताने लगीं. इंदिरा गांधी को इस बात पर भी गर्व था कि
बच्चे शिक्षा की तरफ भले ही कम ध्यान दे रहे हों, फिर भी भारतीय समाज
में प्राचीन संस्कृति की झलक दिखाई देती थी, जिसमें
सभ्यता, आदर्शवाद, ईमानदारी व एक – दूसरे
का मान – सम्मान रखने की
भावना थी. इंदिरा गांधी इस बात पर गर्व करती थीं कि हमारे देश के इतिहास को इसी
प्राचीन सभ्यता ने सजीव बना रखा है.
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वैचारिक रचना ‘प्रधानमंत्री’
से, पृष्ठ संख्या - 77
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