दंश - साहित्यकार लक्ष्मण राव |
उस समय सुबह के सात बज रहे थे. पंजाब
मेल पूना पहुँच चुकी थी. पूना
रेलवे स्टेशन से टैक्सी लेकर मैं उस गेस्ट हाउस पहुंचा जहां मुझे ठहरना था.
वह गेस्ट हाउस केवल उच्च शिक्षा अधिकारियों
के लिए था. हमारे
पंजाब के बलवंत सिंहजी महाराष्ट्र शिक्षा
विभाग में उच्च शिक्षा अधिकारी थे. उन्होंने
ही मुझे अनुमति पत्र
देकर उस गेस्ट हाउस में ठहरने की अनुमति प्राप्त करवाई थी.
गेस्ट हाउस के स्वागत कक्ष में जाकर मैंने अनुमति पत्र दिखाया. स्वागत
कक्ष अधिकारी ने मेरा नाम - पता
लिखकर मुझे एक कक्ष की चाबी दी और कर्मचारी को बुलवाकर मेरा सामान प्रथम तल पर आरक्षित कक्ष तक
पहुंचाने का आदेश दिया. मैंने
उन्हें धन्यवाद कहा और अपने कक्ष के पास जाकर दरवाज़ा खोलकर सामान
अंदर रखवाया व कर्मचारी को चाय - पानी के नाम से कुछ पैसे दिए. वह
‘नमस्ते बाबूजी’ कहकर चला गया.
मैं बहुत थक चुका
था. दरवाज़ा अंदर से बंद करके मैं सो गया और फिर चार घंटे के बाद मेरी आँख खुली. स्नान
करके मैं तैयार हो गया. तब
तक दोपहर का एक बज चुका था. मेरी
नज़र दरवाज़े पर पड़ी जहां फर्श पर
एक पर्चा पड़ा हुआ था, शायद वह मेरे लिए मैसेज था. मैं
उस पर्चे को उठाकर पढ़ने लगा. उसमें
लिखा था – “सरदार
बलवंत सिंहजी का आपके लिए दो बार फोन आया था. आप
कृपया उनसे संपर्क करें.”
उस पर्चे को लेकर मैं स्वागत कक्ष में पहुंचा और वह पर्चा अधिकारी को दिखाया. उन्होंने
सरदारजी साहब को
फ़ोन लगाया. फिर
उन्होंने रिसीवर मुझे सौंप दिया और मैं बात करने लगा.
मैंने
कहा – “जी सर,
मैं परमजीत बोल
रहा हूँ.”
उन्होंने कहा
– “ठीक
से पहुँच गए
न?” मैंने सकारात्मक उत्तर
दिया.
आगे
उन्होंने कहा – “अभी मैं
ऑफिस में हूँ.
शाम को मेरे
घर पहुंचना. हम
आगे की योजना
बनाएँगे. ठीक है?”
मैंने
कहा – “जी ठीक
है सर.” उन्होंने फ़ोन
रख दिया. पश्चात
मैं भोजन कक्ष
में जाकर भोजन
करने लगा.
बलवंत सिंहजी तीस - पैंतीस वर्षों से महाराष्ट्र प्रदेश में रहते थे. कभी
बम्बई, कभी नांदेड, कभी पूना,
परन्तु इस समय वे पूना विद्यापीठ के शिक्षण संस्थान में उच्च अधिकारी थे. वे
पंजाब में हमारे ही गाँव के रहने वाले थे. मेरे
पिताजी के साथ उनकी गहरी मित्रता थी. वे
बार - बार मेरे पिताजी से कहते
थे – “अपने
लड़के को ऑफिसर बनाओ. यदि
मेरी कोई सहायता लगे तो अवश्य बताना.”
उन्ही के कहने पर मैं पूना आया था. मैंने
पंजाब यूनिवर्सिटी से बी. ए.
किया था और अब अंग्रेजी विषय में एम.ए. करना
चाहता था. वे
मेरे सामने पूना के फर्गुसन कॉलेज की बहुत बार प्रशंसा कर चुके थे. कहते
थे – “एक बार तुम
फर्गुसन कॉलेज की बिल्डिंग व परिसर देख लेना, तुम्हारी
आँखें खुल जाएंगी. तुम
सोचते ही रह जाओगे कि उच्च शिक्षा क्या होती है.”
भोजन करते - करते मैं यही सोच रहा था कि सबसे पहले फर्गुसन कॉलेज देखूं. क्योंकि
अब मेरे पास समय भी था. भोजन
करके पूछताछ करते हुए मैं घूमते - फिरते फर्गुसन कॉलेज पहुँच गया और मैं देखता ही रह गया. जिस छात्र
को अध्ययन की जिज्ञासा है वह छात्र ऐसे ही शिक्षण संस्थानों को देख ले, मन
को शान्ति मिल जाएगी. मैं सपने
देखने लगा. इसी
कॉलेज में मुझे एम.ए.
के लिए एडमिशन मिल जाना चाहिए. पंजाब
की तुलना में पूना - बम्बई
वास्तव में शिक्षा के माध्यम से बहुत उच्चकोटि के शहर थे.
अब मेरा मन पूना की तरफ खिंचता चला जा
रहा था. शाम
को मैं सरदारजी साहब के घर पहुँच गया. रात
का भोजन भी मैंने उन्हीं के घर किया. उनका
भी भरा - पूरा परिवार था. पत्नी - बच्चे
व उनके माता - पिता भी
उन्हीं के साथ रहते थे. मेरे
लिए उन्होंने कॉलेज से एडमिशन फॉर्म भी खरीद लिया था. मुझे
फॉर्म देते हुए कहने
लगे – “इस
फॉर्म को भर लेना, साथ
में पासपोर्ट साइज के फोटोग्राफ भी लगने हैं. उस
पर हस्ताक्षर मैं कर दूंगा. पश्चात
मैं गेस्ट हाउस चला आया.”
दूसरे दिन ही मेरा कॉलेज में एडमिशन हो गया. यह
सब सरदारजी साहब के प्रयासों से ही संभव हुआ था. क्योंकि
अंग्रेजी में एम.ए.
करने के लिए छात्र -
छात्राओं का अभाव रहता था. फिर
अंग्रेजी सुनने - सुनाने में तो अच्छी
लगती थी, किन्तु जब व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करने की बारी आती थी तो कई विद्यार्थी एम.ए. फर्स्ट ईयर से ही छोड़कर चले
जाते थे. एडमिशन
लेते समय सरदारजी साहब ने मुझे यही हिदायत दी थी कि मन लगाकर पढ़ना. बच्चों
के समझ में नहीं आता है तो छोड़कर चले जाते हैं. मैंने
उन्हें आश्वासन
दिया था कि मैं मन लगाकर पढूंगा तथा विश्वास के साथ एम.ए.
पास करूँगा.
एडमिशन की समस्या हल हो गयी थी. अब
समस्या थी खर्चे की और पूना शहर में दो वर्ष रहने की. क्योंकि
जिस गेस्ट हाउस में मैं ठहरा था वहां पर अधिक - से - अधिक सात दिन तक ही ठहर सकते थे.
मुझे अपने घर से पिताजी जो रकम भेजेंगे वह रहने के लिए पर्याप्त नहीं थी. इसलिए
मैं सोच रहा था कि शाम के
समय ट्यूशन पढ़ाने का काम कर लूंगा. पर
अब ख़ुशी इस बात की थी कि एडमिशन हो गया था तथा पंजाब से जो सपना
पूरा करने के लिए मैं पूना आया था उसकी नींव
डल चुकी थी.
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