बाबरी मस्जिद कांड भारत के इतिहास में बहुत
बड़ी घटना है। राम जन्मस्थान व बाबरी मस्जिद की लड़ाई सदियों पुरानी है, यह
इतिहास के पन्ने बताते हैं। बाबरी मस्जिद का सम्पूर्ण घटनाचक्र बहुत से तथ्य उजागर
करता है। हम क्रमवार इसकी चर्चा करते हैं –
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बाबरी मस्जिद का इतिहास
इतिहास के पृष्ठों में लिखा है कि सन 1600
में बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया था। इतिहासकारों के पास इसकी निश्चित तारीख
व अवधि नहीं है। परंतु सोलहवीं शताब्दी में बाबरी मस्जिद बनकर तैयार हो गयी थी।
हिंदुओं के ग्रन्थों में यह लिखा है कि सन
1200 में उसी स्थान पर श्री राम जी का मंदिर था। ऐसा हिन्दू संगठनों का मानना है।
फिर मुग़ल सम्राट बाबर ने सन 1500 में हिंदुस्तान के अनेक रजवाड़े उजाड़ दिये और अपना
प्रभुत्व जमाया। उस समय बादशाह बाबर ने मंदिरों को नष्ट करके मस्जिदों की स्थापना
की, यह इतिहासकारों का कहना है और उसी काल में बाबरी मस्जिद की स्थापना हुई।
यहाँ पर एक संशय का आभास होता है। वह यह कि कोई भी राजा या कोई भी सम्राट चाहे
हिन्दू हो या मुसलमान, वह कभी भी किसी धार्मिक स्थल की
स्थापना अपने नाम से नहीं करेगा। परंतु इतिहासकारों ने इसका भी तोड़ निकाला।
बाबर ने हिंदुस्तान की बहुत बड़ी भूमि जब
अपने कब्ज़े में कर ली तब उसने अपनी सेना किसी नायक के अधीन करके उसके द्वारा आगे
की लड़ाई जारी रखी। यह सोचकर उन्होंने एक सेना नायक नियुक्त किया। उस सेना नायक का
नाम मीर बाँके था। मीर बाँके 1520 के बाद अपनी सेना अयोध्या ले गया और वहाँ पर
सबसे पहले उन्होंने हिंदुओं के मंदिरों को नष्ट किया। मंदिरों को नष्ट करके
मस्जिदों का निर्माण करते गए। उसमें से एक मस्जिद का नाम उसने अपने सम्राट बाबर के
नाम पर रख दिया। इस तरह से वह बाबरी मस्जिद कहलाई जाने लगी।
सन 1853 में इसी धर्मस्थल पर हिंदुओं और
मुसलमानों का खूनी दंगा हुआ था। इसे आयोध्या कभी भूल नहीं सकता। परंतु इसी जगह पर
1855 तक हिन्दू पूजापाठ करते थे व मुसलमान भाई अपनी नमाज़ पढ़ते थे। इसके प्रमाण
अंग्रेज़ों के समय के न्यायालयों ने संजो कर रखे थे। इसी आधार पर ब्रिटिश
इतिहासकारों ने इतिहास भी लिख डाला।
हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय जब एक ही
स्थान पर प्रार्थना करने जाते थे तो लड़ाई-झगड़े भी होते थे और लाठियाँ भी चलती थीं।
दोनों समुदायों के बीच वाद-विवाद समाप्त हो जाए, यह सोचकर अंग्रेज़ प्रशासन
ने एक ही स्थान के दो भाग कर दिये, एक बाहरी भाग तथा एक
आंतरिक भाग। अंदर के भाग में मुसलमान नमाज़ पढ़ते थे व बाहरी भाग में हिन्दू पूजापाठ
करते थे। इस प्रकार का बंटवारा जब अंग्रेज़ों ने किया तो दोनों ही समुदायों ने इसे
स्वीकार करके वर्तमान वाद-विवाद को समाप्त किया।
कुछ समय तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। पर
हिंदुओं को यह अखरने लगा। उस समय अयोध्या में हिंदुओं के प्रमुख तथा मंदिर के महंत
श्री रघुवीरदास थे। इनके नेतृत्व में सन 1885 में अंग्रेज़ न्यायालय में एक विनती
पत्र दाखिल किया गया कि श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए। यह
केस एक वर्ष तक चलता रहा। 18 मार्च, 1886 को फैज़ाबाद के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट
ने निर्णय देते हुए यह कहा कि – “हिंदुओं के पवित्र स्थान पर मस्जिद बनाना और उस
पर आधिपत्य दिखाना, यह तो दुर्भाग्य की बात है। यह एक समुदाय
के द्वारा दूसरे समुदाय पर किया जाने वाला अत्याचार है। किन्तु अब क्या किया जा
सकता है? 360 वर्ष पहले जो घटना घट चुकी है उसके लिए बिना
किसी प्रमाण के न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करना उचित नहीं है। इसलिए यह केस यहीं
पर समाप्त किया जाता है।”
फैज़ाबाद ज़िला न्यायालय का फैसला हिंदुओं
ने स्वीकार नहीं किया और वाद-विवाद बढ़ता गया। बढ़ते हुए वाद-विवाद को देखकर मुसलमानों
ने बाबरी मस्जिद में नमाज़ पढ़ना बंद कर दिया। धीरे-धीरे समय बीतता गया और समय के
साथ-साथ मुसलमानों का मस्जिद जाना बंद हो गया। 1949 तक अर्थात तेरह वर्ष तक जब
मुसलमान मस्जिद को छोड़ चुके थे तब हिंदुओं ने सारी जगह अपने अधिकार में ले ली और
विस्तार से पूजापाठ करना आरंभ किया।
जब हिंदुओं ने मस्जिद के स्थान पर श्री
रामजी की मूर्ति की स्थापना की और पूजापाठ होने लगा तो मुस्लिम संगठन का भारतीय
वक्फ बोर्ड सामने आया। बोर्ड के सदस्यों ने कहा – “यह जगह तो हमारे वक्फ बोर्ड की
है। इस पर आपने रामजी की मूर्ति रख कर कब्ज़ा कैसे किया?”
इतिहासकारों का यह मानना है कि वह जगह
भारतीय वक्फ बोर्ड की थी। अब प्रश्न इस बात का है कि वक्फ बोर्ड की स्थापना कब हुई
और उस बोर्ड को मान्यता कब से मिली? इसके प्रमाण इतिहासकारों के पास थे।
बहरहाल दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के प्रति
वादी-प्रतिवादी केस दायर किया। उस समय संबंधित न्यायालय में परस्पर विचार-विमार्श
करके केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप किया। क्योंकि दोनों समुदायों के लोग लड़ने- मरने
को तैयार थे। ऐसी अवस्था में केंद्र सकरार ने दोनों ही पक्षों की जान-माल के हित
की रक्षा करते हुए उस जगह को विवादित स्थान घोषित करके दरवाज़े को ताले लगा दिये।
यह बात 1949 की है। जिस स्थान को गर्भगृह कहा जाता है उस स्थान के दरवाज़े पर ताले
लगे हुए थे। उन तालों से कोई भी छेड़छाड़ न करे यह भी आदेश न्यायालय द्वारा दिया गया
था। उस स्थान के बाहर ही पूजा-अर्चना करने की अनुमति थी।
इसी विवादित स्थान में जो 2.7 एकड़ भूमि है, उसमें
निर्मोही आखाड़ा होने की पुष्टि की गयी। उसके लिए महंत श्री रघुनाथजी ने संबन्धित
न्यायालय में एक अर्ज़ी दाखिल की कि निर्मोही आखाड़ा पंथ को पूजापाठ करने की अनुमति
दी जाए। यह घटना 1959 की है।
जब राम जन्मभूमि के समर्थक पूजापाठ करने
लगे और निर्मोही आखाड़ा पंथ के सदस्य न्यायालय से बार-बार निवेदन करने लगे तो 1961 में
उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड के सदस्यों ने न्यायालय में यह दावा
किया कि बाबरी मस्जिद एवं उसके आसपास की भूमि पर मुसलमान समाज का कब्रिस्तान है।
आगे राम जन्मभूमि हिन्दू संगठन,
निर्मोही अखाड़ा पंथ एवं वक्फ बोर्ड, यह तीनों संगठन उत्तर
प्रदेश के संबन्धित न्यायालय में अपने-अपने दावे बार-बार पेश करते रहे। इसकी
सुर्खियां स्थानीय समाचारों में लगातार छपती रहीं। उसके बाद इस विवादित स्थान ने
राजनीतिक रूप ले लिया।
1984 में विश्व हिन्दू परिषद ने बाबरी
मस्जिद के ताले खोलने के लिए उग्र आंदोलन शुरू किया। इसमें न्यायालय तक कार सेवकों
को इकट्ठा करना, जगह-जगह भाषण-संभाषण करना, संबन्धित
सरकारी कार्यालयों पर प्रदर्शन करना, यह जारी रहा। विश्व
हिन्दू परिषद ने यह स्पष्ट किया कि – “हमारी मांगे यह हैं कि
जहां पर मस्जिद का निर्माण किया गया है वहाँ पर राम जन्मभूमि मंदिर था। उस मंदिर
को ध्वस्त करके मस्जिद बनाई गयी और उस जगह पर मुस्लिम समाज अब किसी भी प्रकार का
प्रयोग नहीं कर रहे हैं। निवेदन है कि उस स्थान को हिंदुओं का धार्मिक पवित्र
स्थान घोषित किया जाए।”
1986 में श्री हरीशंकर दुबे ने नयी याचिका
तैयार करके फैज़ाबाद के न्यायालय में पेश की। फैज़ाबाद न्यायालय के सत्र न्यायाधीश ने उस विवादित
स्थान के ताले खोलकर हिंदुओं को पूजापाठ करने की अनुमति दे दी। विश्व हिन्दू परिषद
ने सम्पूर्ण भारत में जयकारा घोषित किया।
इसका विरोध करते हुए मुस्लिम समाज के अनेक
संगठन संगठित हुए। मुस्लिम समाज ने उसी समय बाबरी मस्जिद के नाम से बाबरी मस्जिद
कार्य समिति की स्थापना की। अब दोनों पक्षों की दलील सम्पूर्ण देश के समाचार
पत्रों में प्रकाशित होने लगी।
राजनैतिक दलों का हस्तक्षेप
1986 से लेकर 1988 तक हिन्दू विश्व परिषद
ने भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) को लेकर बाबरी मस्जिद का मुद्दा देश की राष्ट्रीय
राजनीति में लाकर खड़ा कर दिया। इससे सम्पूर्ण देश भर के छोटे-मोटे हिन्दू संगठन
एकत्रित हुए। दूसरी तरफ अल्पसंख्यक मुसलमानों के दिलों को ठेंस पहुँचने लगी।
इसके बाद राम मंदिर एवं बाबरी मस्जिद के
विवादित स्थान ने उग्र रूप धारण कर लिया। इसी का लाभ उठाते हुए संगठनों ने उसी
वर्ष अर्थात 1989 में विवादित स्थान से थोड़ा हटकर राम जन्मभूमि की स्थापना करते
हुए पूजा-अर्चना की।
जब सारी घटनाएँ हिंदुओं के पक्ष में दिखाई
देने लगीं तो विश्व हिन्दू परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष श्री देवकी नन्दन अग्रवाल ने
न्यायालय में केस दायर किया कि राम जन्मभूमि स्थान से बाबरी मस्जिद को अन्य किसी
स्थान पर स्थानांतरित किया जाए। 9 नवंबर, 1989 को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने
इस स्थान पर शिलान्यास करने की अनुमति दे दी।
केंद्र सरकार की अनुमति मिलने के बाद यह
कार्य एक पक्षीय दिखाई देने लगा। किन्तु मुसलमानों को यह अनुभव होने लगा कि हमारे
धार्मिक स्थान एवं धार्मिक भावनाओं को कुचलने का प्रयास किया जा रहा है।
1990 में विश्व हिन्दू परिषद के कुछ
कार्यकर्ता मस्जिद परिसर में घुसकर तोड़फोड़ कर आए। इस पर मुस्लिम समाज ने आपत्ति की
तथा सरकार व न्यायालय से यह अपील की कि हिन्दू और मुस्लिम समाज के बीच में खाई का
निर्माण न हो इस पर भी उचित ध्यान देने का कष्ट करें।
केन्द्रीय सरकार डावांडोल अवस्था में चल
रही थी। मस्जिद और मंदिर की घटना चुनावी मुद्दे के स्वरूप राज्यों में होने वाले
चुनावों में अपनी बढ़त बना चुकी थी। इसी दौरान भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं
ने रथयात्रा निकालने की योजना बना डाली। उस समय भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय
अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी थे।
25 सितंबर, 1990 को लालकृष्ण आडवाणी
ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकली। पूरे देश भर में तनावपूर्ण वातावरण बन
गया था। जब आडवाणी की रथयात्रा नवम्बर महीने में बिहार के समस्तीपुर पहुंची तो
वहाँ पर बिहार सरकार ने इस रथयात्रा को रोक लिया। परंतु भारतीय जनता पार्टी को यह
उम्मीद नहीं थी। क्योंकि उस समय देश के प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह थे। वी.पी. सिंह सरकार
को भारतीय जनता पार्टी का समर्थन था।
बिहार में आडवाणी का रथ रोक लिया गया और
दो समुदायों में दंगा भड़काने के आरोप में आडवाणी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
आडवाणी की रथयात्रा समाप्त हो गयी। उसी समय भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रपति
कार्यालय को वी.पी. सिंह सरकार को दिये समर्थन को वापस लेने का विनती पत्र दाखिल
किया। दो दिन में वी.पी. सिंह सरकार बर्खास्त हो गयी।
इसके बाद बाबरी मस्जिद एवं राम जन्मभूमि
स्थान का विवाद बढ़ता ही गया। केंद्र की सरकार के लुढ़कने के बाद काँग्रेस ने अपना
समर्थन देकर चन्द्रशेखर को प्रधानमंत्री बनाया।
चन्द्रशेखर का कार्यकाल 10 नवंबर, 1990
से 21 जून, 1991 तक था। राम जन्मभूमि विवाद को बातचीत के
आधार पर चन्द्रशेखर ने दोनों समुदायों के सदस्यों को एक बेंच पर बैठाकर हल करने का
प्रयास किया। परंतु इसमें चन्द्रशेखर सफल नहीं हो पाए। भारतीय जनता पार्टी का
चुनावी ग्राफ दिन - प्रतिदिन बढ़ता ही जा
रहा था। उसी वर्ष अर्थात 1991 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए और इस
चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिल गया। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता
पार्टी की सरकार स्थापित हो गयी। तब पूरा उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के ही
हाथों में था।
सन 1992 के आरंभ से ही विश्व हिन्दू परिषद,
भारतीय जनता पार्टी तथा बाकी के जितने भी हिंदुवादी संगठन एवं छोटे-मोटे राजनीतिक
दल थे, उन्होंने अपना-अपना वर्चस्व दिखते हुए डेरा डालने
हेतु अयोध्या में प्रवेश करना आरंभ कर दिया। कुछ ही महीनों में बाबरी मस्जिद परिसर
के आसपास हिन्दू संगठनों ने डेरा डाल दिया।
अब सभी संगठनों ने बाबरी मस्जिद तोड़कर उसी
स्थान पर श्री राम मंदिर बनाया जाए, इस प्रकार की योजनाएँ तैयार की और 6 दिसंबर
को वही हुआ जिसके बारे में कभी सोचा नहीं जा सकता था। सभी कार सेवकों ने मिलकर बाबरी
मस्जिद के गुंबद तोड़ डाले और सम्पूर्ण विश्व भर में इस घटना की चर्चा होने लगी।
जिस समाज के जहां भी अल्पसंख्यक रहते थे, उन पर हमला किया
गया - हिंदुओं द्वारा मुसलमानों पर और
मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर। उत्तर प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार तथा
देश की केन्द्रीय सरकार इन दोनों सरकारों को इस घटना के दोषी ठहराया गया।
उस समय भारत के प्रधानमंत्री नरसिंह राव
थे। इस घटना पर राव ने एक आयोग की स्थापना की। उस आयोग की अध्यक्षता एम.एस.
लिबरहान करने लगे। परिस्थितिनुसार काँग्रेस का वोट बैंक घट गया और काँग्रेस सरकार
के स्थान पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गयी। प्रधानमंत्री थे श्री अटल बिहारी
वाजपेयी। सन 2000 से देश भर में हिन्दू संगठन भारतीय जनता पार्टी के हित व पक्ष में
काम करने लगे। जब भी 6 दिसंबर का दिन समीप आता तब हिन्दू संगठनों द्वारा राम मंदिर
बनाने का उत्साह बनाया जाता। ऐसी अवस्था में पूरे देश में तनाव की स्थिति बन जाती।
अटल बिहारी वाजपेयी ने हिन्दू संगठनों को अनुचित कार्य रोकने के आदेश दिये।
साथ-साथ समझौते की पहल भी जारी रखी। सन 2002 में गुजरात के गोधरा में रेलगाड़ी पर
हमला बोल दिया गया। उस गाड़ी में अयोध्या से कार सेवक आ रहे थे। 65 व्यक्तियों की
मौत हो गयी। इस घटना को लेकर जातीय दंगे भी हुए।
बहरहाल, बाबरी मस्जिद तोड़ने के
बाद भारतीय केंद्र सरकार ने लिबरहान आयोग स्थापित किया था। वह आयोग समस्त प्रमाण
संगठित करते हुए छानबिन कर रहा था। सन 1992 से लेकर सन 2009 तक आयोग ने किसी भी
प्रकार का कोई निर्णय नहीं दिया। परंतु सत्रह वर्षों के बाद अपनी सम्पूर्ण रिपोर्ट
प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंप दी। उस समय प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी थे।
एक दैनिक समाचार पत्र के अनुसार इस आयोग की अंतिम रिपोर्ट देने के लिए 50 बार समय बढ़ाने
का निवेदन किया जाता रहा। 22 नवंबर, 2009 को इस आयोग की रिपोर्ट
लीक हो गयी जिसमें यह प्रमाणित था कि बाबरी मस्जिद तोड़ने की पूर्व योजना भारतीय
जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा की जा रही थी।
पश्चात 8 सितंबर, 2010
को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने यह निर्णय लिया कि अयोध्या की विवादित
जगह पर किसका अधिकार है, इसका निर्णय 24 सितंबर, 2010 को घोषित किया जाएगा। न्यायाधीश एस. यू. खान,
न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल तथा न्यायाधीश डी. वी. शर्मा की बेंच ने पिछले साठ सालों
से चले आ रहे इस विवाद के संबंध में अपना निर्णय सुरक्षित रखा।
30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय
ने 2.7 एकड़ ज़मीन को तीन बराबर भागों में बांटने का निर्णय दिया, जिसमें एक हिस्सा राम मंदिर के लिए, दूसरा हिस्सा निर्मोही
अखाड़े को और तीसरा हिस्सा वक्फ बोर्ड को देने का निर्देश दिया गया। परंतु इसके विरुद्ध
की गयी अपील में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया
और अब वही संकोच, धैर्य, सहिष्णुता के
प्रश्न खड़े करके बाबरी मस्जिद या राम जन्मभूमि इन दो यथार्थों के लिए हिन्दू व
मुसलमान वर्षों तक प्रतीक्षा करते रहेंगे, ऐसा ही भविष्य
दिखाई दे रहा है।
यह भी माना जा रहा था कि न्यायालय तीन
मामलों में निर्णय देगा, एक – क्या विवादित स्थल पर सन 1538 से पहले
रामजी का मंदिर था? दूसरा - क्या बाबरी मस्जिद समिति की तरफ
से 1961 में जो याचिका दायर की गयी थी वह उचित थी? तीन –
क्या स्थानीय मुस्लिम समुदाय ने अधिग्रहण के आधार पर अपने मालिकाना हक को मज़बूत
किया है?
वर्ष बीतते रहेंगे और अनावश्यक प्रश्न खड़े
होते रहेंगे। परंतु बुद्दिजीवि समाज को किसी भी वाद-विवाद से लगाव नहीं है। अपितु
हिन्दू मुसलमान दोनों समुदायों के लोग एक साथ रहकर अपने राष्ट्र को आगे बढ़ाते रहें, इसी
में समाज की भलाई है।
धर्म के नाम पर राजनीति की जाती है। परंतु
राजनीति करने वाला व्यक्ति दो समुदायों को क्यों लड़वाना चाहता है और बाबरी मस्जिद
कांड जैसी घटनाएँ क्यों घटती हैं, इसकी परिकल्पना समुदायों को करनी चाहिए।
धर्म की लड़ाई लड़कर न तो देश चलता है न घर चलता है। इसलिए इस प्रकोष्ठ में एकता न
दिखाना और नेताओं के प्रलोभन में आना उचित नहीं है। हिन्दू-मुसलमान दोनों समाज
समझते हैं कि चाहे धार्मिक स्थल दस बार उजाड़ दिये जाएँ, कुछ
नहीं बिगड़ता। भारत देश के हिन्दू-मुसलमानों को कोई बाँट नहीं सकता। पर धर्मों के
बीच में खाई पैदा करना इससे बड़ा धार्मिक अपराध और कोई नहीं हो सकता।
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