बहुधा ऐसा सुनने को मिलता है कि अँग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व होने के कारण हमारे देश की
राष्ट्रभाषा हिंदी दबकर रह गयी है और हिंदी भाषा की
उपेक्षा की जा रही है। परंतु ऐसा नहीं है। वर्तमान समय में हिन्दी को बढ़ावा देने हेतु
देशभर में अथक प्रयास जारी हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास बहुत उज्ज्वल रहा है जिसमें
अनेक हिन्दी साहित्यकारों ने एक से बढ़कर एक रचनाएँ पाठकों को दीं, जिसके फलस्वरूप हिंदी भाषा का विकास हुआ।
हिन्दी पुस्तकें पढ़ने के प्रति देश के सभी नागरिक इच्छा व्यक्त करते हैं, परंतु अच्छी पुस्तकें कम दाम में प्राप्त करना भी एक अभिलाषा है।
हिन्दी भाषा से अभी नागरिकों को प्रेम है और देश में सबसे अधिक समाचार पत्र-पत्रिकाएँ
एवं पुस्तकें हिन्दी भाषा की ही खरीदी एवं पढ़ी जाती हैं। तो फिर अब हिन्दी की अवहेलना
से संबन्धित प्रश्न क्यों उभर कर आ रहे हैं?
अँग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व
दिन-प्रतिदिन शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का माध्यम अँग्रेज़ी भाषा बनती जा रही
है। नौकरी के लिए भी अँग्रेज़ी भाषा में कम्प्यूटर की ट्रेनिंग महत्व रखती है। कुछ
सरकारी कार्यालय, राजदूतावास, पाँच सितारा होटल, न्यायालय आदि का कार्य अँग्रेज़ी
भाषा में होने के कारण प्रमुखतः इस भाषा को प्राथमिकता दी गयी है। परंतु
रिश्तेदारी में, बाज़ारों में, व्यापार
करने में तथा आम बोलचाल में हिन्दी का ही बोलबाला है।
यहाँ तक कि जब तक आप को हिन्दी भाषा में भाषण देना नहीं आता तब तक आप नेता भी
नहीं बन सकते। बहुत
से ऐसे नेता हैं जो प्रांतीय भाषा को बहुत अच्छी तरह समझ व बोल लेते हैं। उन्हें
राजनीति का विशेष ज्ञान है। परंतु हिन्दी भाषा के बोलचाल व संभाषण का ज्ञान नहीं
होने के कारण उनका राजनीति से पतन भी हो चुका है। प्रांतीय भाषा तो प्रांतीय
संस्कृति को समझने की भाषा है। परंतु हिन्दी भाषा राष्ट्र को समझने का माध्यम है।
इसलिए भारत देश के हर नागरिक को चाहे वह महिला हो या पुरुष, हिन्दी को अपनाना
चाहिए।
हिन्दी भाषा को स्थापित करने का
काम मुसलमान समाज ने बहुत हद तक किया। अहिंदी भाषी क्षेत्रों में जो मुसलमान समाज
रहता है, वे अपनी उर्दू ज़बान में बोलते हैं। उर्दू व हिन्दी में थोड़ा ही अंतर है।
दोनों भाषा एक जैसी लगती है। उर्दू में कुछ शब्द ऐसे हैं जो बोलने-समझने में कठिन
लगते हैं, पर उर्दू भाषा के साथ जब बोलने का प्रयास किया
जाता है तो थोड़ी बहुत हिन्दी भाषा समझ ली जाती है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास
हिन्दी भाषा के साहित्यकारों की
कमी नहीं है। ऐसे बहुत से हिन्दी साहित्यकार हैं जिनकी पुस्तकें पढ़कर ज्ञानवर्धक
बातें सीखी जाती हैं। जैसे कि मलिक मोहम्मद जायसी का पद्मावत काव्यखण्ड पढ़कर आनंद
आता है और इतिहास के पात्रों को समझा-परखा जाता है। इसी तरह कालीदास की संकृत से
रूपांतर की गयी सभी पुस्तकें अध्ययन के लिए उपयुक्त हैं। गालिब की शायरी का उर्दू
भाषा का शायरी खण्ड हिन्दी में विश्लेषण करके समझाया गया है।
इसी तरह मुंशी प्रेमचन्द, निराला, चिंतामणि जैसे पचास से अधिक साहित्यकार हैं जिनकी पढ़ने योग्य पाँच सौ से
अधिक पुस्तकें हैं और जिन्हें पढ़कर मनुष्य जीवन को समझा जा सकता है। बंगाली
साहित्यकारों में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय तथा बंकिमचन्द्र चटर्जी का विशेष रूप से
नाम लिया जाता है। पचास-साठ लेखक ऐसे भी हैं जिनका नाम पिछले चालीस-पचास वर्षों से
चल रहा है। उनमें से वर्तमान समय में भी किसी की पाँच तो किसी की बीस रचनाएँ
निरंतर छप रही हैं एवं पाठक खरीद कर पढ़ भी रहे हैं।
हिन्दी के उपन्यासकार गुलशन नन्दा
की इतनी आलोचना की गयी कि अब उनकी पुस्तकें बाज़ार में भी उपलब्ध नहीं हैं। उन्होंने
साठ पुस्तकें लिखीं - मैला आँचल, नया ज़माना, पत्थर के
होंठ, कटी पतंग, दाग, महबूबा, गेलार्ड, कलंकिनी, आदि। उनकी रचनाएं हज़ारों की संख्या में छपकर पूरे देशभर में वितरित होती
थीं। अहिंदी भाषा क्षेत्र में उनकी रचनाएँ बहुत बिकीं। उनके उपन्यासों पर सबसे
अधिक फिल्में बनीं। फिर भी उनकी आलोचना होती रही कि यह घटिया उपन्यासकार हैं।
ब्रिटेन के महान साहित्यकार विलियम
शेक्सपियर की अनेक पुस्तकें हिन्दी में अनुवाद करके प्रकाशित की जा चुकी हैं जिसके
पाठकों की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। शेक्सपियर का साहित्य अँग्रेज़ी भाषा के
पाठ्यक्रम में विश्वभर के विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इसलिए भी शेक्सपियर
को जाना जाता है।
पर ऐसे साहित्यकारों की पुस्तकें
प्रकाशकों के पास उपलब्ध नहीं हैं। इन पुस्तकों को प्रकाशित करना राज्य सरकार या हिंदी
भाषी राज्य सरकारों का काम है।
हिंदी समाचार पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका
आज देशभर में हिन्दी के समाचार
पत्र व पत्रिकाएँ लाखों की संख्या में प्रकाशित हो रहे हैं। सत्तर व अस्सी के दशक
में हिन्दी भाषा में साप्ताहिक हिंदुस्तान व धर्मयुग छपा करती थी। धर्मयुग मुंबई
से प्रकाशित होकर पूरे देशभर में वितरित होती थी जिसे पाठक पढ़ने के लिए प्रतीक्षा
करते थे। इसी तरह और भी पत्रिकाएँ थीं जैसे सुषमा, सारिका, माधुरी, आदि। एक मासिक पत्रिका और थी – ‘मनोहर कहानियाँ’। इसकी बिक्री आज भी लगातार बढ़ रही
है। भले ही मनोहर कहानियाँ परिवार के सभी सदस्यों के पढ़ने योग्य नहीं है, परंतु ऐसी पत्रिका एकांत में पढ़ी जाती हैं। जो भी हो, भाषा का प्रवाह बनाने के लिए ऊपरी स्तर से निचले स्तर की पुस्तकें पढ़ना अपराध
नहीं है। उन पाठकों से तो अच्छा ही है जो मात्र दिखावा करने के लिए अँग्रेज़ी पुस्तकें
व समाचार पत्र खरीदते हैं, परंतु पढ़ते कभी नहीं। क्योंकि
भाषा का तह तक ज्ञान नहीं होने के कारण पढ़ने में रुचि नहीं आती और नींद आने लगती
है।
हिंदी फिल्म का योगदान
हिन्दी फिल्मों का भी हिन्दी भाषा
को बढ़ावा देने हेतु महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1940 से लेकर 1980 तक हिन्दी
भाषा में बहुत अच्छी फिल्मों का निर्माण हुआ। एक-एक फिल्म पूरे देशभर के बड़े-बड़े
शहरों में पाँच-छह महीनों तक हाउसफुल रहती थी। इसके अनेक कारण हो सकते हैं, परंतु प्रमुख कारण शुद्ध हिन्दी भाषा का प्रभाव अधिक समझा जाता है। हमारे
देश के लोग अधिकतर हिन्दी फिल्में देखकर यादगार संस्मरण के लिए फिल्मों के संवाद
बोलकर देखते हैं। साथ-साथ हिन्दी भाषा भी बोलने का प्रयास करते हैं।
कम्प्यूटर क्रांति का प्रभाव
अब कम्प्यूटर घर-घर में पहुँच चुका
है। 1992 के बाद कम्प्यूटर ने कार्यालयों में 60 प्रतिशत विस्तार कर लिया। अब कम्प्यूटर
इतना फैल गया है कि अधिकांश जनसंख्या की धारणा बन गयी है कि पुस्तकें व पत्रिकाएँ
खरीदने की आवश्यकता नहीं है, डाउनलोड पर सब कुछ उपलब्ध है। आज अधिकांश
लोगों से यह सुनने में आता है कि पुस्तकें क्या पढ़ाती हैं, कम्प्यूटर
और टीवी ने बहुत कुछ दिया है और दे रहा है। परंतु फिर भी कम्प्यूटर पुस्तकों का स्थान
नहीं ले सकता।
साहित्य के प्रति रुचि होना क्यों है आवश्यक
भाषा एवं साहित्य के प्रति रुचि
होना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि भाषा व साहित्य से ज्ञान प्राप्त होता है। दस से पंद्रह
वर्ष की उम्र के बच्चों में अध्ययन की रुचि नहीं है क्योंकि उनके विद्यालय का
बस्ता ही बहुत बड़ा बन गया है, यह सुनने को मिलता है। परंतु यदि आप पढ़ते
हुए या अध्ययन करते हुए दिखाई देंगे तो आने वाली पीढ़ी भी आपका अनुकरण कर सकती है।
हिन्दी
भाषा की आलोचना करने वाले अधिकतर वही लोग हैं जो शिक्षा विभाग में प्राथमिकता अँग्रेज़ी
को दे रहे हैं। हिन्दी की आलोचना तो होनी ही नहीं चाहिए। हिंदी के नाम से मात्र हिंदी
दिवस मनाने या भवनों की स्थापना करके धन बटोरना ही पर्याप्त नहीं है। हिंदी भाषा का
विकास हो, इसके लिए निरंतर प्रयास किए जाने चाहिए। हिन्दी साहित्य का इतिहास संरक्षित रखने हेतु
यह आवश्यक है।
- साहित्यकार लक्ष्मण राव
हिन्दी साहित्य के विषय में आप भी अपने विचार
व अनुभव कमेंट्स में साझा करें।
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